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Showing posts from September 17, 2017

क्या हो गयी ज़िंदगी

आज सब्ज़ी वाले  की दुकान पर सड़े हुए टमाटर देख के ख़याल आया की तराज़ू के वज़न पे कट रही है ये नाज़ुक ज़िंदगी   हमारी कभी हुआ करते थे हम भी राजा अपनी बादशाहत के आज कल नौकर बने घूमते हैं घर के काम निपटाने के लिए कभी आलू कम पड जाता है तो कभी प्याज़ का रोना आता है कभी दाले नहीं ग़लती यहाँ तो कभी केला पड़े पड़े सड़ जाता हैं क्या था कसूर उस प्यारी सी आलू गोबी का इस दुनिया मे जो बैठी रही बाहर सारी रात एक मुलाक़ात की याद में तन्हा सुबह आते आते ढल गयी थी ज़िंदगी की चिंगारी उसके आस से भरे दिल मे ना मिली मुलाक़ात, मिली तो बस बिरयानी के कारण बेवफ़ाई और अकेलापन बस यही सारी तक़लीफें होती तो होती क्या ज़िंदगी पर जीने के लिए कपड़ा और मकान भी तो चाहिए यहाँ कपड़े धोना दुश्मन से जंग करना लगता है कभी पाउडर कम पड़ जाता है तो कभी पानी नही आता है कभी सब सही हो भी गया तो भी कहाँ चैन मिले गंदे कपड़ो को सही वक़्त पर एलेक्ट्रिसिटी बोर्ड