क्या हो गयी ज़िंदगी


आज सब्ज़ी वाले की दुकान पर सड़े हुए टमाटर देख के ख़याल आया
की तराज़ू के वज़न पे कट रही है ये नाज़ुक ज़िंदगी हमारी

कभी हुआ करते थे हम भी राजा अपनी बादशाहत के
आज कल नौकर बने घूमते हैं घर के काम निपटाने के लिए

कभी आलू कम पड जाता है तो कभी प्याज़ का रोना आता है
कभी दाले नहीं ग़लती यहाँ तो कभी केला पड़े पड़े सड़ जाता हैं

क्या था कसूर उस प्यारी सी आलू गोबी का इस दुनिया मे
जो बैठी रही बाहर सारी रात एक मुलाक़ात की याद में तन्हा

सुबह आते आते ढल गयी थी ज़िंदगी की चिंगारी उसके आस से भरे दिल मे
ना मिली मुलाक़ात, मिली तो बस बिरयानी के कारण बेवफ़ाई और अकेलापन

बस यही सारी तक़लीफें होती तो होती क्या ज़िंदगी
पर जीने के लिए कपड़ा और मकान भी तो चाहिए यहाँ

कपड़े धोना दुश्मन से जंग करना लगता है
कभी पाउडर कम पड़ जाता है तो कभी पानी नही आता है

कभी सब सही हो भी गया तो भी कहाँ चैन मिले गंदे कपड़ो को
सही वक़्त पर एलेक्ट्रिसिटी बोर्ड हमारी गंदी लगा कर पावर ले जाता है

कमरे की सफाई मे दुनिया के राज़ निकलते हैं हर कोने से
2 महीने पहले खाई गयी आलू भुजिया अभी भी अलमारी मे फसि हुई है

हैरानी इस बात की भी है कीआधा खाया हुआ बिस्कट मिला पिल्लो के नीचे से
बेड के नीचे नज़र डाली तो दिख गया जूतो का एक छोटा सा बाज़ार

जीना कहाँ है आसान यहाँ, हर दिन एक अलग जद्दो जहद सी जारी है
पर है एक आज़ादी सी इस ज़िंदगी मे, एक अनोखी सी बेवकूफी सी चलती है


और लिखने का बहुत मन था पर तुम सब को भी क्या बताउ मित्रो,
हमारी दीदी आई है आज 2 दिन के बाद, खाना बनवाना है तो चलता हू |


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